शनिवार, 19 नवंबर 2011

क्या है गायत्री मंत्र का अर्थ ?

गायत्री गीता (गायत्री महाविज्ञान भाग-२) के अनुसार गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में सन्निहित सूत्र इस प्रकार है-

१. तत्- यह परमात्मा के उस जीवन्त अनुशासन का प्रतीक है, जन्म और मृत्यु जिसके ताने-बाने हैं । इसे आस्तिकता-ईश्वर निष्ठा के सहारे जाना जाता है । उपासना इसका आधार है ।

२. सविर्तु- सविता, शक्ति उत्पादक केन्द्र है । साधक में शक्ति विकास का क्रम चलना चाहिए । यह जीवन साधना से साध्य है ।

३. वरेण्यं- श्रेष्ठता का वरण, आदशर्-निष्ठा, सत्य, न्याय, ईमानदारी के रूप में यह भाव फलित होता है ।

४. भर्गो- विकारनाशक तेज है, जो मन्यु साहस के रूप में उभरता और निर्मलता, निर्भयता के रूप में फलित होता है ।

५. देवस्य- दिव्यतावर्द्धक है । सन्तोष, शान्ति, निस्पृहता, संवेदना, करुणा आदि के रूप में प्रकट होता है ।

६. धीमहि- सद्गुण धारण का गुण, जो पात्रता विकास और समृद्धिरूप में फलित होता है ।

७. धियो- दिव्य मेधा, विवेक का प्रतीक शब्द है, समझदारी, विचारशीलता, निर्णायक क्षमता आदि का संवर्द्धक है ।

८. यो नः- दिव्य अनुदानों के सुनियोजन, संयम का प्रतीक है । धैर्य, ब्रह्मचर्यादि का उन्नायक है ।

९. प्रचोदयात्- दिव्य प्रेरणा, आत्मीयताजन्य सेवा साधना, सत्कर्त्तव्य निष्ठा का विकासक है ।

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011



रावण- एक अनछुआ परिचय

हे महावीर , पराक्रमी, महाज्ञानी, महाभक्त, न्यायप्रिय, अपनों से प्रेमभाव रखने वाले , अपनी प्रजा को पुत्र से ज्यादा प्रेम करने वाले, धर्म आचरण रखने वाले,
अपने शत्रुओं को भयभीत रखने वाले, वेदांत प्रिय त्रिलोकस्वामी रावण आपकी सदा जय हो !

                         हे महावीर आपके समक्ष मैं नासमझ अनजाना बालक आपसे सहायता मांग रहा हूँ । हे रावण मेरे देश को बचा लो उन दुष्ट देवता रूपी नेताओं से जो हर साल आपके पुतले को जलाकर आपको मार रहे हैं और आपको मरा समझ अपने को अजेय मान रहे हैं । हे पराक्रमी दसशीशधारी आज मेरे देश को आपकी सख्त जरूरत आन पडी है । जनता त्राही त्राही कर रही है ओर राजशासन इत्मीनान से भ्रष्टाचार, व्याभिचार और धर्मविरोधी कार्यों में लगा हुआ ।
हे रावण मुझे आपकी सहायता चाहिये इस देश में धर्म को बचाने के लिये , उस धर्म को जिसे निभाने के लिये जिसमें आप स्वयं पुरोहित बनकर राम के समक्ष बैठकर अपनी मृत्यु का संकल्प करवाए थे । आज हमारे राजमंत्री अपने को बचाने के लिये प्रजा की आहूति दे रहे हैं । हे रावण आप जिस राम के हाथों मुक्ति पाने के लिये अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिये वही राम आज अपने ही देश में, अपनी ही जन्मस्थली को वापस पाने के लिये इस देश के न्यायालय में खडे हैं । हे रावण अब राम में इतना सामर्थ्य नही है कि वह इस देश को बचा सके इसलिये आज हमें आपकी आवश्यकता है ।
                     हे दशग्रीव हम बालक नादान है जो आपकी महिमा और ज्ञान को परे रखकर अब तक अहंकार को ना जला कर मिटाकर आपको ही जलाते आ रहे हैं । हे परम ज्ञान के सागर, संहिताओं के रचनाकर अब हमें समझ आ रहा है कि जो दक्षिणवासी आप पर श्रद्धा रखते आ रहे हैं वो हम लोगों से बेहतर क्यों हैं । हे त्रिलोकी सम्राट हमें अपनी शरण में ले लो और केवल दक्षिण को छोड समस्त भारत भूमि की रक्षा करने आ जाओ । हे वीर संयमी आपने जिस सीता को अपने अंतःपुर मे ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर रखे ताकि कोई आप पर कटाक्ष ना कर सके वही सीता आज सार्वजनिक बाग बगीचों में भी लज्जाहिन होने में गर्व महसूस कर रही है ।
        हे शिवभक्त मेरे देश में यथा राजा तथा प्रजा का वेदकथन अभी चरितार्थ नही हो पाया है अभी प्रजा में आपका अंश बाकि है लेकिन हे प्रभो ये रामरूपी राजनेता , प्रजा के भीतर बसे रावण को पूरी तरह से समाप्त करने पर तुले हुए हैं ।
       त्राहीमाम् त्राहीमाम् ……. हे राक्षसराज रावण हमारी इन कपटी, ढोंगी रामरूपी नेताओं से रक्षा करो ।
                                                              ।। रावण ।।
                                ठीक है की मैं जो कह रहा हूँ वह गलत हो सकता है लेकिन क्या कोई इस बात को सोचनें की जहमत उठाने को तैय्यार है की रावण का पुतला हम क्यों जलाते हैं या जलते रावण का पुतला जला कर खुशीयां क्यों मनाते हैं ?  हम रावण का पुतला केवल इसलिये जलाते हैं क्योंकि हमें केवल त्यौहार मनानें का शौक रहा है । हर परंपरा को निभाने की आदत में शुमार होकर हम लोग कई रस्मों को बिना जाने पहचानें , सोचे समझे उसमें सम्मिलित हो जाते हैं । रावण को दशानन क्यों कहा जाता है इसके बारे में बडे ही हास्पद तरीके से रावण के दस सिरों को बनाकर काम क्रोध लोभ वगैरह वगैरह का नाम दे दिया जाता है , जबकि हकीकत ये हैं की रावण को दशानन कहने वाले राम थे और उन्होने उसे दशानन इसलिये कहे थे क्योंकि रावण का दसों दिशाओं पर अधिकार था । (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, आकाश और पाताल) आकाश (स्वर्ग) पर इंद्रजीत, पाताल में अहिरावण औऱ बाकी आठ दिशाओं का नियंत्रण स्वयं रावण के पास था । ये बातें आजकल कोई नही समझाता क्योंकि इससे लोगों का त्यौहार फीका पड जाएगा ।
                                           क्या किसी नें यह सोचने की जहमत उठाई की रावण नें सीता को अपने अंतःपुर में ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर क्यों रखा ?
                           दरअसल सीता रावण की पुत्री  थी । जब रावण नें मंदोदरी की कोख में कन्या को देखा तो उसनें अपने ज्योतिष से यह जान लिया था की वह कन्या और कोई नही स्वयं माता भगवती का अवतार हैं । चूंकि रावण किसी भी स्त्री का वध नही कर सकता था (कन्या ही क्या रावण के द्वारा किसी की हत्या की गई हो इसका भी प्रमाण नही है, उसनें लंका पर कब्जा केवल इसलिये किया था क्योंकि वह नगरी उसके अऱाध्य शिव नें अपने लिये बनवाए थे ) इसलिये उसनें उस कन्या भ्रूण को राजा जनक ( राजा जनक नें महर्षि गौतम की पत्नि अहिल्या के बलात्कार का दोषी इंद्र को ठहराते हुए हवन में उसकी आहूति बंद करवा दिये थे इसलिये आज भी यज्ञ में इंद्र को आहूति नही दी जाती है ) के राज्य में उस खेत में रख दिया जहां से वह राजा जनक को आसानी से प्राप्त हो जाए ।     रावण नें माँ भगवती को इसलिये अपने राज्य से हटा दिया था क्योंकि वह जानता था की उसके राज्य में जिस तरह की रक्ष तंत्र व्यवस्था है उसमें देवी को वह सम्मानीय स्थान नही मिल पाएगा जिसकी वह हकदार हो सकती थी ।
                                                हनुमान नें पूरे लंका को तहस नहस कर दिये लेकिन रावण और हनुमान के युद्ध का कहीं भी वर्णन नही है और यदि है तो उसका कोई ठोस प्रमाण नही है । दरअसल रावण- हनुमान का युद्ध हो ही नही सकता था क्योंकि हनुमान भगवान शिव के रूद्रावतार थे औऱ रावण को यह ज्ञात था की स्वयं शिव राम की सहायता कर रहे हैं फिर भला यह कैसे संभव हो सकता था की रावण हनुमान को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाता । दरअसल लंकादहन इसलिये करवाई गई क्योंकि उसका निर्माण भी भगवान शंकर नें किये थे और उसका दहन भी उन्होने ही किये अर्थात अपनी ही वस्तु को समाप्त कर दिये ।
                                           सब कहते हैं की राम नें रावण को मार दिये लेकिन किसी नें यह सोचा की जब रावण नें हजार साल ब्रम्हा की तपस्या करके अमरत्व लिया था तो  उसकी स्वयं की आयु क्या रही होगी  । फिर   इतने शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट को 24 वर्ष का युवक राम कैसे मार सकता था ।
                                              दरअसल राम को भी रावण को मारने के लिये 24 बार जन्म लेना पडा था । हर युग में जब जब त्रेता युग आता था तब तब राम जन्म लेते थे लेकिन23 युग तक राम की मृत्यु होती रही । तब 24वें युग में राम का पुनः जन्म हुआ तो भगवान शिव नें विष्णु को रावण की मृत्यु के लिये हर संभव सहायता दिये और हनुमान को प्रकट किये । जब राम बडे हुए तो उन्हे ब्रम्हर्षि  विश्वामित्र नें अपने संरक्षण में लेकर युवा राम को सबल राम बना दिये । उन्हे हर तरह के दिव्यात्र और देवास्त्र देने वाले महर्षि विश्वामित्र ही थे ।  बाकि की कहानी तो हर किसी को मालूम है लेकिन एक बात ऐसी भी है जो बहुत ही कम लोगों को ज्ञात है । जब राम लंका के पास रामेश्वरम में धनुषकोटी के पास पहुंचे तो क्रोध में उन्होने समुद्र को जलाने के लिये धनुष उठाए तो समुद्र नें उन्हे पुल बनाने का फार्मुला देने के साथ साथ शिवलिंग की स्थापना करने को भी कहा पुल बनने के बाद राम नें वहीं समुद्र तट पर रेती से शिवलिंग बनाने का प्रयास किये । लेकिन जितनी बार वह शिवलिंग बनाते उतनी बार समुद्र उस शिवलिंग को अपने साथ बहा कर ले जाता तब उन्होने पुनः समुद्र से उपाय पुछे तो समुद्र नें उनसे कहे की हे राम तुम क्षत्रिय हो और जब तक शिवलिंग की स्थापना योग्य पुरोहित के द्वारा नही होगी तब तक वह शिवलिंग मेरा भाग होता है । तब राम नें उनसे पुछे की आप ही बताएं की यहां का योग्य पुरोहित कौन हो सकता हौ तब समुद्र नें मुस्कुरा कर कहे की यहां का सर्वश्रेष्ठ पुरोहित लंका नरेश रावण हैं ।
                                           तब राम नें अपने एक दूत को लंकेश के दरबार में नम्र निवेदन के साथ भेजे । जब दूत दरबार में पहुंचा तो लंकेश अपने दरबार में मंत्रीयों के साथ मंत्रणा कर रहे थे । दूत से लंकेश नें अपना संदेश देने को कहा तो दूत नें इंकार करते हुए कहा की ……. नही महाराज रावण वह संदेशा आपके लिये नही है । यह संदेश जो मैं लेकर आया हूँ वह पुरोहित रावण के लिये है । … दूत के ऐसा कहने पर लंकेश कुछ नही बोले और उठ कर दरबार से बाहर चले गये । कुछ देर बाद दूत को संदेश मिला की भीतर पधारिये । जब दूत अंदर गया तो उसने देखा की एक दिव्य पुरूष सफेद वस्त्र पहने हुए खडा है । दूत नें उस दिव्य पुरूष को प्रणाम किया तो उस दिव्य पुरूष नें मधुर वाणी में पुछा की कहो महाराजा राम के संदेश वाहक … क्या संदेश लाए हो  —
दूत — हे आर्य मैं महाराज राम का संदेश पुरोहित रावण के लिये लाया हूँ ।
दिव्य पुरूष – तुम अपना संदेशा मुझे दे सकते हो .., मैं ही हूँ पुरोहित रावण ।
दूत –  महाराजा रावण आप …
रावण –  नही… महाराजा रावण अपने महल में हुआ करता है मैं यहां पुरोहित रावण हूँ और तुम इस समय मेरे साधना कक्ष के अतिथि गृह में हो .. कहो क्या संदेसा है महाराज राम का ।
दूत – पुरोहित जी अयोध्यानगरी के राजा रामचंद्रजी को महापराक्रमी महाराजा रावण से युद्ध करने जाना है और युद्ध का समय नजदीक है किंतु हमारे महाराज को भगवान शिव का आशिर्वाद लेने के लिये यज्ञ करवाना है जिसके पुरोहित की आवश्यकता है । हो पुरोहित जी क्या आप महाराज राम के यज्ञ में यजमानी करनें की कृपा करेंगे ।
रावण – यदि किसी और के पूजन की बात होती तो मैं नही जाता लेकिन यहां मेरे अराध्य शिव के पूजन की बात है और यह मेरा सौभाग्य होगा की मैं महाराज राम के यज्ञ की यजमानी कर सकूं । मैं कल पातः 4 बजे पहुंच जाऊंगा । और हां … अपने महाराज से कहना की मैं अपने अराध्य की पूजन सामग्री लेता आऊंगा ।
                                             इस तरह से पुरोहित रावण नें दूत को विदा कर दिये । अगले दिन प्रातः जब राम लक्ष्मण समुद्र तट पर बैठे पुरोहितच का इंतजार कर रहे थे । लक्ष्मण रावण से किसी तरह का धोखा होने पर अपने धनुष की प्रत्यंचा चढाए थे । कुछ समय बाद लंका से दिव्य तीव्र प्रकाश अपनी ओर आता देख दोनो अपने स्थान पर खडे हो गये । जब पुरोहित रावण वहां पहुंचे तो सबसे पहले राम नें उन्हे प्रणाम करके बैठने को आसन दिये । यज्ञ प्ररंभ हुआ । पुरोहित नें संकल्प छुडवाये की यह यज्ञ राजा रामचंद्र  की विजय के लिये आयोजित है । हे भगवान शिव आफ अफनी कृपा बनाए रखें और यह आशीष दें की राम की जय हो और रावण मृत्यु को प्राप्त हो ।
                                                      जब रावण यह संकल्प करवा रहे थे तो लक्ष्मण पूरे ध्यान से सुन रहे थे की कहीं राम की जगह रावण का संल्प ना छुट जाए । जब यज्ञ सम्पन्न हो गया तो रावण नें लक्ष्मण को बलाकर कहे की लक्ष्मण यहां पर मैं पुरोहित रावण हूँ माहारजा रावण नही इसलिये अपनी शंका कुशंका को परे रखो ।
                                                   औऱ अंत में —– राम नें रावण को ब्रम्हास्त्र से इसलिये मारे क्योंकि रावण को ब्रम्हा से अमरत्व प्राप्त हुआ था और राम नही चाहते थे की ब्रम्हा का अपमान हो इसलिये जब ब्रम्हा को अपने तीर पर बैठाकर राम नें रावण के पास भेजे तो ब्रम्हा नें रावण को जाकर कहे की हे महान तपस्वी रावण मैने आपको जो अमरता प्रदान किया था भगवान शिव व विष्णु के निवेदन पर वह अमरता वापस लेता हूँ । कृपया आप अपनी नश्वर देह का त्याग करने की कृपा करें ।
 …….. …..और रावण नें ब्रम्हा को उनका अमृत कुंड वापस कर दिये ……

रावण- एक अनछुआ परिचय

रावण- एक अनछुआ परिचय

हे महावीर , पराक्रमी, महाज्ञानी, महाभक्त, न्यायप्रिय, अपनों से प्रेमभाव रखने वाले , अपनी प्रजा को पुत्र से ज्यादा प्रेम करने वाले, धर्म आचरण रखने वाले,
अपने शत्रुओं को भयभीत रखने वाले, वेदांत प्रिय त्रिलोकस्वामी रावण आपकी सदा जय हो !
                         हे महावीर आपके समक्ष मैं नासमझ अनजाना बालक आपसे सहायता मांग रहा हूँ । हे रावण मेरे देश को बचा लो उन दुष्ट देवता रूपी नेताओं से जो हर साल आपके पुतले को जलाकर आपको मार रहे हैं और आपको मरा समझ अपने को अजेय मान रहे हैं । हे पराक्रमी दसशीशधारी आज मेरे देश को आपकी सख्त जरूरत आन पडी है । जनता त्राही त्राही कर रही है ओर राजशासन इत्मीनान से भ्रष्टाचार, व्याभिचार और धर्मविरोधी कार्यों में लगा हुआ ।
हे रावण मुझे आपकी सहायता चाहिये इस देश में धर्म को बचाने के लिये , उस धर्म को जिसे निभाने के लिये जिसमें आप स्वयं पुरोहित बनकर राम के समक्ष बैठकर अपनी मृत्यु का संकल्प करवाए थे । आज हमारे राजमंत्री अपने को बचाने के लिये प्रजा की आहूति दे रहे हैं । हे रावण आप जिस राम के हाथों मुक्ति पाने के लिये अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिये वही राम आज अपने ही देश में, अपनी ही जन्मस्थली को वापस पाने के लिये इस देश के न्यायालय में खडे हैं । हे रावण अब राम में इतना सामर्थ्य नही है कि वह इस देश को बचा सके इसलिये आज हमें आपकी आवश्यकता है ।
                     हे दशग्रीव हम बालक नादान है जो आपकी महिमा और ज्ञान को परे रखकर अब तक अहंकार को ना जला कर मिटाकर आपको ही जलाते आ रहे हैं । हे परम ज्ञान के सागर, संहिताओं के रचनाकर अब हमें समझ आ रहा है कि जो दक्षिणवासी आप पर श्रद्धा रखते आ रहे हैं वो हम लोगों से बेहतर क्यों हैं । हे त्रिलोकी सम्राट हमें अपनी शरण में ले लो और केवल दक्षिण को छोड समस्त भारत भूमि की रक्षा करने आ जाओ । हे वीर संयमी आपने जिस सीता को अपने अंतःपुर मे ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर रखे ताकि कोई आप पर कटाक्ष ना कर सके वही सीता आज सार्वजनिक बाग बगीचों में भी लज्जाहिन होने में गर्व महसूस कर रही है ।
        हे शिवभक्त मेरे देश में यथा राजा तथा प्रजा का वेदकथन अभी चरितार्थ नही हो पाया है अभी प्रजा में आपका अंश बाकि है लेकिन हे प्रभो ये रामरूपी राजनेता , प्रजा के भीतर बसे रावण को पूरी तरह से समाप्त करने पर तुले हुए हैं ।
       त्राहीमाम् त्राहीमाम् ……. हे राक्षसराज रावण हमारी इन कपटी, ढोंगी रामरूपी नेताओं से रक्षा करो ।
                                                              ।। रावण ।।
                                ठीक है की मैं जो कह रहा हूँ वह गलत हो सकता है लेकिन क्या कोई इस बात को सोचनें की जहमत उठाने को तैय्यार है की रावण का पुतला हम क्यों जलाते हैं या जलते रावण का पुतला जला कर खुशीयां क्यों मनाते हैं ?  हम रावण का पुतला केवल इसलिये जलाते हैं क्योंकि हमें केवल त्यौहार मनानें का शौक रहा है । हर परंपरा को निभाने की आदत में शुमार होकर हम लोग कई रस्मों को बिना जाने पहचानें , सोचे समझे उसमें सम्मिलित हो जाते हैं । रावण को दशानन क्यों कहा जाता है इसके बारे में बडे ही हास्पद तरीके से रावण के दस सिरों को बनाकर काम क्रोध लोभ वगैरह वगैरह का नाम दे दिया जाता है , जबकि हकीकत ये हैं की रावण को दशानन कहने वाले राम थे और उन्होने उसे दशानन इसलिये कहे थे क्योंकि रावण का दसों दिशाओं पर अधिकार था । (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, आकाश और पाताल) आकाश (स्वर्ग) पर इंद्रजीत, पाताल में अहिरावण औऱ बाकी आठ दिशाओं का नियंत्रण स्वयं रावण के पास था । ये बातें आजकल कोई नही समझाता क्योंकि इससे लोगों का त्यौहार फीका पड जाएगा ।
                                           क्या किसी नें यह सोचने की जहमत उठाई की रावण नें सीता को अपने अंतःपुर में ना रख कर अशोक वाटिका जैसी सार्वजनिक जगह पर क्यों रखा ?
                           दरअसल सीता रावण की पुत्री  थी । जब रावण नें मंदोदरी की कोख में कन्या को देखा तो उसनें अपने ज्योतिष से यह जान लिया था की वह कन्या और कोई नही स्वयं माता भगवती का अवतार हैं । चूंकि रावण किसी भी स्त्री का वध नही कर सकता था (कन्या ही क्या रावण के द्वारा किसी की हत्या की गई हो इसका भी प्रमाण नही है, उसनें लंका पर कब्जा केवल इसलिये किया था क्योंकि वह नगरी उसके अऱाध्य शिव नें अपने लिये बनवाए थे ) इसलिये उसनें उस कन्या भ्रूण को राजा जनक ( राजा जनक नें महर्षि गौतम की पत्नि अहिल्या के बलात्कार का दोषी इंद्र को ठहराते हुए हवन में उसकी आहूति बंद करवा दिये थे इसलिये आज भी यज्ञ में इंद्र को आहूति नही दी जाती है ) के राज्य में उस खेत में रख दिया जहां से वह राजा जनक को आसानी से प्राप्त हो जाए ।     रावण नें माँ भगवती को इसलिये अपने राज्य से हटा दिया था क्योंकि वह जानता था की उसके राज्य में जिस तरह की रक्ष तंत्र व्यवस्था है उसमें देवी को वह सम्मानीय स्थान नही मिल पाएगा जिसकी वह हकदार हो सकती थी ।
                                                हनुमान नें पूरे लंका को तहस नहस कर दिये लेकिन रावण और हनुमान के युद्ध का कहीं भी वर्णन नही है और यदि है तो उसका कोई ठोस प्रमाण नही है । दरअसल रावण- हनुमान का युद्ध हो ही नही सकता था क्योंकि हनुमान भगवान शिव के रूद्रावतार थे औऱ रावण को यह ज्ञात था की स्वयं शिव राम की सहायता कर रहे हैं फिर भला यह कैसे संभव हो सकता था की रावण हनुमान को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाता । दरअसल लंकादहन इसलिये करवाई गई क्योंकि उसका निर्माण भी भगवान शंकर नें किये थे और उसका दहन भी उन्होने ही किये अर्थात अपनी ही वस्तु को समाप्त कर दिये ।
                                           सब कहते हैं की राम नें रावण को मार दिये लेकिन किसी नें यह सोचा की जब रावण नें हजार साल ब्रम्हा की तपस्या करके अमरत्व लिया था तो  उसकी स्वयं की आयु क्या रही होगी  । फिर   इतने शक्तिशाली और प्रतापी सम्राट को 24 वर्ष का युवक राम कैसे मार सकता था ।
                                              दरअसल राम को भी रावण को मारने के लिये 24 बार जन्म लेना पडा था । हर युग में जब जब त्रेता युग आता था तब तब राम जन्म लेते थे लेकिन23 युग तक राम की मृत्यु होती रही । तब 24वें युग में राम का पुनः जन्म हुआ तो भगवान शिव नें विष्णु को रावण की मृत्यु के लिये हर संभव सहायता दिये और हनुमान को प्रकट किये । जब राम बडे हुए तो उन्हे ब्रम्हर्षि  विश्वामित्र नें अपने संरक्षण में लेकर युवा राम को सबल राम बना दिये । उन्हे हर तरह के दिव्यात्र और देवास्त्र देने वाले महर्षि विश्वामित्र ही थे ।  बाकि की कहानी तो हर किसी को मालूम है लेकिन एक बात ऐसी भी है जो बहुत ही कम लोगों को ज्ञात है । जब राम लंका के पास रामेश्वरम में धनुषकोटी के पास पहुंचे तो क्रोध में उन्होने समुद्र को जलाने के लिये धनुष उठाए तो समुद्र नें उन्हे पुल बनाने का फार्मुला देने के साथ साथ शिवलिंग की स्थापना करने को भी कहा पुल बनने के बाद राम नें वहीं समुद्र तट पर रेती से शिवलिंग बनाने का प्रयास किये । लेकिन जितनी बार वह शिवलिंग बनाते उतनी बार समुद्र उस शिवलिंग को अपने साथ बहा कर ले जाता तब उन्होने पुनः समुद्र से उपाय पुछे तो समुद्र नें उनसे कहे की हे राम तुम क्षत्रिय हो और जब तक शिवलिंग की स्थापना योग्य पुरोहित के द्वारा नही होगी तब तक वह शिवलिंग मेरा भाग होता है । तब राम नें उनसे पुछे की आप ही बताएं की यहां का योग्य पुरोहित कौन हो सकता हौ तब समुद्र नें मुस्कुरा कर कहे की यहां का सर्वश्रेष्ठ पुरोहित लंका नरेश रावण हैं ।
                                           तब राम नें अपने एक दूत को लंकेश के दरबार में नम्र निवेदन के साथ भेजे । जब दूत दरबार में पहुंचा तो लंकेश अपने दरबार में मंत्रीयों के साथ मंत्रणा कर रहे थे । दूत से लंकेश नें अपना संदेश देने को कहा तो दूत नें इंकार करते हुए कहा की ……. नही महाराज रावण वह संदेशा आपके लिये नही है । यह संदेश जो मैं लेकर आया हूँ वह पुरोहित रावण के लिये है । … दूत के ऐसा कहने पर लंकेश कुछ नही बोले और उठ कर दरबार से बाहर चले गये । कुछ देर बाद दूत को संदेश मिला की भीतर पधारिये । जब दूत अंदर गया तो उसने देखा की एक दिव्य पुरूष सफेद वस्त्र पहने हुए खडा है । दूत नें उस दिव्य पुरूष को प्रणाम किया तो उस दिव्य पुरूष नें मधुर वाणी में पुछा की कहो महाराजा राम के संदेश वाहक … क्या संदेश लाए हो  —
दूत — हे आर्य मैं महाराज राम का संदेश पुरोहित रावण के लिये लाया हूँ ।
दिव्य पुरूष – तुम अपना संदेशा मुझे दे सकते हो .., मैं ही हूँ पुरोहित रावण ।
दूत –  महाराजा रावण आप …
रावण –  नही… महाराजा रावण अपने महल में हुआ करता है मैं यहां पुरोहित रावण हूँ और तुम इस समय मेरे साधना कक्ष के अतिथि गृह में हो .. कहो क्या संदेसा है महाराज राम का ।
दूत – पुरोहित जी अयोध्यानगरी के राजा रामचंद्रजी को महापराक्रमी महाराजा रावण से युद्ध करने जाना है और युद्ध का समय नजदीक है किंतु हमारे महाराज को भगवान शिव का आशिर्वाद लेने के लिये यज्ञ करवाना है जिसके पुरोहित की आवश्यकता है । हो पुरोहित जी क्या आप महाराज राम के यज्ञ में यजमानी करनें की कृपा करेंगे ।
रावण – यदि किसी और के पूजन की बात होती तो मैं नही जाता लेकिन यहां मेरे अराध्य शिव के पूजन की बात है और यह मेरा सौभाग्य होगा की मैं महाराज राम के यज्ञ की यजमानी कर सकूं । मैं कल पातः 4 बजे पहुंच जाऊंगा । और हां … अपने महाराज से कहना की मैं अपने अराध्य की पूजन सामग्री लेता आऊंगा ।
                                             इस तरह से पुरोहित रावण नें दूत को विदा कर दिये । अगले दिन प्रातः जब राम लक्ष्मण समुद्र तट पर बैठे पुरोहितच का इंतजार कर रहे थे । लक्ष्मण रावण से किसी तरह का धोखा होने पर अपने धनुष की प्रत्यंचा चढाए थे । कुछ समय बाद लंका से दिव्य तीव्र प्रकाश अपनी ओर आता देख दोनो अपने स्थान पर खडे हो गये । जब पुरोहित रावण वहां पहुंचे तो सबसे पहले राम नें उन्हे प्रणाम करके बैठने को आसन दिये । यज्ञ प्ररंभ हुआ । पुरोहित नें संकल्प छुडवाये की यह यज्ञ राजा रामचंद्र  की विजय के लिये आयोजित है । हे भगवान शिव आफ अफनी कृपा बनाए रखें और यह आशीष दें की राम की जय हो और रावण मृत्यु को प्राप्त हो ।
                                                      जब रावण यह संकल्प करवा रहे थे तो लक्ष्मण पूरे ध्यान से सुन रहे थे की कहीं राम की जगह रावण का संल्प ना छुट जाए । जब यज्ञ सम्पन्न हो गया तो रावण नें लक्ष्मण को बलाकर कहे की लक्ष्मण यहां पर मैं पुरोहित रावण हूँ माहारजा रावण नही इसलिये अपनी शंका कुशंका को परे रखो ।
                                                   औऱ अंत में —– राम नें रावण को ब्रम्हास्त्र से इसलिये मारे क्योंकि रावण को ब्रम्हा से अमरत्व प्राप्त हुआ था और राम नही चाहते थे की ब्रम्हा का अपमान हो इसलिये जब ब्रम्हा को अपने तीर पर बैठाकर राम नें रावण के पास भेजे तो ब्रम्हा नें रावण को जाकर कहे की हे महान तपस्वी रावण मैने आपको जो अमरता प्रदान किया था भगवान शिव व विष्णु के निवेदन पर वह अमरता वापस लेता हूँ । कृपया आप अपनी नश्वर देह का त्याग करने की कृपा करें ।
 …….. …..और रावण नें ब्रम्हा को उनका अमृत कुंड वापस कर दिये ……

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी महाराज

हठयोग के आचार्य गुरु गोरखनाथ जी महाराज
गोरखनाथश् या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पडा है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है।
इन्हें चैरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, श्महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?श् गोरखनाथ ने उसी
तरह रोते हुए कहा, श्क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।श् इस पर राजा ने कहा, श्हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।श् गोरखनाथ बोले, श्तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।श् गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया। कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मुर्ती भी है। यहाँ हर साल वैशाख पुर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है। हिन्दू धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना के अन्तर्गत विभिन्न सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों में प्रमुख स्थान रखने वाले नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति आदिनाथ भगवान शिव द्वारा मानी जाती है। शिव से जो तत्वज्ञान मत्स्येन्द्र नाथ ने प्राप्त किया उसे ही शिष्य बन कर शिवावतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने ग्रहण किया
महाकालयोग शास्त्र में स्वयं शिव ने कहा है-श्अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत! योग-मार्ग प्रचाराय मयारूपमिदं धृतम्श्। भारतीय धर्म साधक-सम्प्रदायों की पतनोन्मुख और विकृत स्थिति के दौर में वामाचारी तांत्रिक साधना चरम पर थी। तब पंचमकारों का खुल कर प्रयोग होता था। भोगवाद शीर्ष पर था। ऐसे समय में महायोगी गोरक्षनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। उनका मानना था कि
सिद्धियों का प्रयोग सर्वजन हिताय के लिए ही होना चाहिए। उनके आचार सम्बन्धी उपदेश योग के सैद्धान्तिक अष्टांग योग की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक हैं। नाथ पंथी योगी महायोगी गुरु गोरक्षनाथ को चारों युगों में विद्यमान, अयोनिज, अमरकाय और सिद्ध महापुरुष मानते हैं। उन्होंने भारत के अलावा तिब्बत, मंगोलिया, कंधार, अफगानिस्तान, नेपाल, सिंघल को अपने योग महाज्ञान से आलोकित किया। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार गोरक्षनाथ सतयुग में पेशावर, त्रेता में गोरखपुर, द्वापर में हरमुज (द्वारिका) और कलियुग में गोरखमढ़ी (महाराष्ट्र) में आविभरूत हुए। जोधपुर नरेश महाराजा मानसिंह द्वारा विरचित श्श्रीनाथ तीर्थावलीश् के अनुसार प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह में कंकण बंधन गुरु गोरक्षनाथ की कृपा से ही हुआ था। यद्यपि वैदिक साधना के साथ समानान्तर रूप से प्रवाहित तांत्रिक साधना का समान रूप से शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव आदि पर प्रभाव पड़ा, तथापि उनसे सदाचार के नियमों का पालन यथाविधि नहीं हो सकता। चतुर्दिक फैले हुए अनाचार को देख कर गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य प्रधान योगयुक्त ज्ञान का व्यापक प्रचार किया। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास को लिखना पड़ा- गोरख भगायो जोगु, भगति भगायो लोगु। भक्ति को भगाने वाले संबोधन से तात्पर्य कदाचित
साकारोपासना से है। गुरु गोरखनाथ की भक्ति मुख्य रूप से केवल गुरु तक सीमित है। उन्होंने भक्ति का कहीं विरोध नहीं किया। तुलसी दास के कथन से एक बात स्पष्ट है कि यदि गोरखनाथ जी न होते तो संत साहित्य न होता। गुरु गोरक्षनाथ और नाथ पंथ की योग साधना एवं क्रिया कलापों की प्रतिक्रिया ही सभी निगरुण एवं सगुणमार्गी सन्तों के साहित्य में स्पष्ट होती है। उस प्रतिक्रिया के प्रवाह में प्राचीन जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म, अस्पृश्यता, ऊँचनीच का भेदभाव मिट गया। योग मार्ग के गुह्य सिद्धान्तों को साकार करके जन भाषा में व्यक्त एवं प्रचलित करना गोरखनाथ जी का समाज के प्रति सबसे बड़ा योगदान था। उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही अनेक भारतीय तथा अभारतीय सम्प्रदाय नाथ पंथ में अन्तर्मुक्त हो गए। उनके योग द्वारा सिद्धि की प्राप्ति संयमित जीवन और प्राणायाम से परिपक्व देह की प्राप्ति, अन्त में नादावस्था की स्थिति में दिव्य अनुभूति और सबसे समत्व का भाव आदि विशिष्टताओं ने तत्कालीन समाज एवं साधना पद्धतियों को अपने में लपेट लिया। यही कारण था कि जायसी ने गुरु गोरक्षनाथ की महिमा में कहा- श्जोगी सिद्ध होई तब जब गोरख सौ भेंटश्। कबीर ने भी गोरक्षनाथ जी की अमरता का वर्णन इस प्रकार किया- श्कांमणि अंग विरकत भया, रत भया हरि नाहि। साषी गोरखनाथ ज्यूं,अमर भये कलि माहिश्।। गोरखनाथ जी एवं नाथ सन्तों का ज्ञान किसी शास्त्र-पुराण नहीं अपितु सहज लोकानुभव और लोक व्यवहार का था, जिसे वह जी और भोग रहे थे क्योंकि ब्रह्मचर्य, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्ध, सिद्धावस्था के विविध अनुभव ऐसा कुछ भी नहीं जिसके व्यवहार को छोड़ कर शास्त्र का आधार लेना पड़े। उनका लोकानुभव यज्ञ और पण्डित, ऊंच-नीच आदि की विभाजक रेखा नहीं खींचता। वह मनुष्य मात्र के लिए है। गोरखनाथ जी द्वारा विर्निदिष्ट तत्वविचार तथा योग साधना को आज भी उसी रूप में समझा जा सकता है। नाथ सम्प्रदाय को गुरु गोरक्षनाथ ने भारतीय मनोवृत्त के अनुकूल बनाया। उसमें जहाँ एक ओर धर्म को विकृत करने वाली समस्त परम्परागत रूढि़यों का कठोरता से विरोध किया, वहीं सामान्य जन को अधिकाधिक संयम और सदाचार के अनुशासन में रख कर आध्यात्मिक अनुभूतियों के लिए योग मार्ग का प्रचार-प्रसार किया। उनकी साधना पद्धति का संयम एवं सदाचार से सम्बन्धित व्यावहारिक स्वरूप जन-जन मे ंइतना लोकप्रिय हो गया था कि विभिन्न धर्मावलम्बियों, मतावलम्बियों ने अपने धर्म एवं मत को लोकप्रिय बनाने के लिए नाथ पंथ की साधना का मनचाहा प्रयोग किया।नाथ पंथ की योग साधना आज भी प्रासंगिक है। विभिन्न प्रकार की सामाजिक-शारीरिक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में सक्षम 
Guru Gorakhnath ji (गुरु गोरखनाथ जी)

सिद्ध गोरक्षनाथ को प्रणाम
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।

गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।

गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।

गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।

जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।

नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।
गोरखनाथ जी की जानकारी
Om Siva Goraksa Yogi
गोरक्षनाथ जी
नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूऑ के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडु में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडु में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।

4.वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की 'गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ' में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।

5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपवाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।

6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।
7.एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।

8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

9.एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

यूरोप में खगोल शास्त्र




  • टौलमी (९०-१६८) नाम का ग्रीक दर्शनशास्त्री दूसरी शताब्दी में हुआ था। इसने पृथ्वी को ब्रम्हाण्ड का केन्द्र माना और सारे पिण्डों को उसके चारों तरफ चक्कर लगाते हुये बताया। इस सिद्धान्त के अनुसार सूरज एवं तारों की गति तो समझी जा सकती थी पर ग्रहों की नहीं।
  • कोपरनिकस (१४७३-१५४३) एक पोलिश खगोलशास्त्री था, उसका जन्म १५वीं शताब्दी में हुआ। यूरोप में सबसे पहले उसने कहना शुरू किया कि सूरज सौरमंडल का केन्द्र है और ग्रह उसके चारों तरफ चक्कर लगाते हैं।
  • केपलर (१५७१-१६३०) एक जर्मन खगोलशास्त्री था, उसका जन्म १६वीं शताब्दी में हुआ था। वह गैलिलियो के समय का ही था। उसने बताया कि ग्रह सूरज की परिक्रमा गोलाकार कक्षा में नहीं कर रहें हैं, उसके मुताबिक यह कक्षा अंड़ाकार (Elliptical) है। यह बात सही है।
  • गैलिलियो (१५६४-१६४२) एक इटैलियन खगोलशास्त्री था उसे टेलिस्कोप का आविष्कारक कहा जाता है पर शायद उसने बेहतर टेलिस्कोप बनाये और सबसे पहले उनका खगोलशास्त्र में प्रयोग किया।

प्राचीन भारत में अन्य प्रसिद्ध खगोलशास्त्री

  • याज्ञवल्क्य (ईसा से दो शताब्दी पूर्व) हुऐ थे। उन्होने यजुर्वेद पर काम किया था। इसलिये यह कहा सकता है कि अपने देश ईसा के पूर्व ही मालुम था कि पृथ्वी सूरज के चारो तरफ घूमती है। यूरोप में इस तरह से सोचना तो 14वीं शताब्दी में शुरु हुआ।
  • आर्यभट्ट (प्रथम) (४७६-५५०) ने आर्य भटीय नामक ग्रन्थ की रचना की। इसके चार खंड हैं – गीतिकापाद, गणितपाद, काल क्रियापाद, और गोलपाद। गोलपाद खगोलशास्त्र (ज्योतिष) से सम्बन्धित है और इसमें ५० श्लोक हैं। इसके नवें और दसवें श्लोक में यह समझाया गया है कि पृथ्वी सूरज के चारो तरफ घूमती है।
  • भास्कराचार्य ( १११४-११८५) ने सिद्धान्त शिरोमणी नामक पुस्तक चार भागों में लिखी है – पाटी गणिताध्याय या लीलावती (Arithmetic), बीजागणिताध्याय (Algebra), ग्रह गणिताध्याय (Astronomy), और गोलाध्याय। इसमें प्रथम दो भाग स्वतंत्र ग्रन्थ हैं और अन्तिम दो सिद्धांत शिरोमणी के नाम से जाने जाते हैं। सिद्धांत शिरोमणी में पृथ्वी के सूरज के चारो तरफ घूमने के सिद्धान्त को और आगे बढ़ाया गया है।

यह टोटका करें

व्यापार, विवाह या किसी भी कार्य के करने में बार-बार असफलता मिल रही हो तो यह टोटका करें- सरसों के तैल में सिके गेहूँ के आटे व पुराने गुड़ से तैयार सात पूये, सात मदार (आक) के पुष्प, सिंदूर, आटे से तैयार सरसों के तैल का रूई की बत्ती से जलता दीपक, पत्तल या अरण्डी के पत्ते पर रखकर शनिवार की रात्रि में किसी चौराहे पर रखें और कहें -“हे मेरे दुर्भाग्य तुझे यहीं छोड़े जा रहा हूँ कृपा करके मेरा पीछा ना करना।´´ सामान रखकर पीछे मुड़कर न देखें। 6॰ सिन्दूर लगे हनुमान जी की मूर्ति का सिन्दूर लेकर सीता जी के चरणों में लगाएँ। फिर माता सीता से एक श्वास में अपनी कामना निवेदित कर भक्ति पूर्वक प्रणाम कर वापस आ जाएँ। इस प्रकार कुछ दिन करने पर सभी प्रकार की बाधाओं का निवारण होता है।
7॰ किसी शनिवार को, यदि उस दिन `सर्वार्थ सिद्धि योग’ हो तो अति उत्तम सांयकाल अपनी लम्बाई के बराबर लाल रेशमी सूत नाप लें। फिर एक पत्ता बरगद का तोड़ें। उसे स्वच्छ जल से धोकर पोंछ लें। तब पत्ते पर अपनी कामना रुपी नापा हुआ लाल रेशमी सूत लपेट दें और पत्ते को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इस प्रयोग से सभी प्रकार की बाधाएँ दूर होती हैं और कामनाओं की पूर्ति होती है।
८॰ रविवार पुष्य नक्षत्र में एक कौआ अथवा काला कुत्ता पकड़े। उसके दाएँ पैर का नाखून काटें। इस नाखून को ताबीज में भरकर, धूपदीपादि से पूजन कर धारण करें। इससे आर्थिक बाधा दूर होती है। कौए या काले कुत्ते दोनों में से किसी एक का नाखून लें। दोनों का एक साथ प्रयोग न करें।
9॰ प्रत्येक प्रकार के संकट निवारण के लिये भगवान गणेश की मूर्ति पर कम से कम 21 दिन तक थोड़ी-थोड़ी जावित्री चढ़ावे और रात को सोते समय थोड़ी जावित्री खाकर सोवे। यह प्रयोग 21, 42, 64 या 84 दिनों तक करें।

10॰ अक्सर सुनने में आता है कि घर में कमाई तो बहुत है, किन्तु पैसा नहीं टिकता, तो यह प्रयोग करें। जब आटा पिसवाने जाते हैं तो उससे पहले थोड़े से गेंहू में 11 पत्ते तुलसी तथा 2 दाने केसर के डाल कर मिला लें तथा अब इसको बाकी गेंहू में मिला कर पिसवा लें। यह क्रिया सोमवार और शनिवार को करें। फिर घर में धन की कमी नहीं रहेगी।

11॰ आटा पिसते समय उसमें 100 ग्राम काले चने भी पिसने के लियें डाल दिया करें तथा केवल शनिवार को ही आटा पिसवाने का नियम बना लें।

12॰ शनिवार को खाने में किसी भी रूप में काला चना अवश्य ले लिया करें।

13॰ अगर पर्याप्त धर्नाजन के पश्चात् भी धन संचय नहीं हो रहा हो, तो काले कुत्ते को प्रत्येक शनिवार को कड़वे तेल (सरसों के तेल) से चुपड़ी रोटी खिलाएँ।
14॰ संध्या समय सोना, पढ़ना और भोजन करना निषिद्ध है। सोने से पूर्व पैरों को ठंडे पानी से धोना चाहिए, किन्तु गीले पैर नहीं सोना चाहिए। इससे धन का क्षय होता है।

15॰ रात्रि में चावल, दही और सत्तू का सेवन करने से लक्ष्मी का निरादर होता है। अत: समृद्धि चाहने वालों को तथा जिन व्यक्तियों को आर्थिक कष्ट रहते हों, उन्हें इनका सेवन रात्रि भोज में नहीं करना चाहिये।
16॰ भोजन सदैव पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर के करना चाहिए। संभव हो तो रसोईघर में ही बैठकर भोजन करें इससे राहु शांत होता है। जूते पहने हुए कभी भोजन नहीं करना चाहिए।

17॰ सुबह कुल्ला किए बिना पानी या चाय न पीएं। जूठे हाथों से या पैरों से कभी गौ, ब्राह्मण तथा अग्नि का स्पर्श न करें।

18॰ घर में देवी-देवताओं पर चढ़ाये गये फूल या हार के सूख जाने पर भी उन्हें घर में रखना अलाभकारी होता है।
19॰ अपने घर में पवित्र नदियों का जल संग्रह कर के रखना चाहिए। इसे घर के ईशान कोण में रखने से अधिक लाभ होता है।

20॰ रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र हो, तब गूलर के वृक्ष की जड़ प्राप्त कर के घर लाएं। इसे धूप, दीप करके धन स्थान पर रख दें। यदि इसे धारण करना चाहें तो स्वर्ण ताबीज में भर कर धारण कर लें। जब तक यह ताबीज आपके पास रहेगी, तब तक कोई कमी नहीं आयेगी। घर में संतान सुख उत्तम रहेगा। यश की प्राप्ति होती रहेगी। धन संपदा भरपूर होंगे। सुख शांति और संतुष्टि की प्राप्ति होगी।
21॰ `देव सखा´ आदि 18 पुत्रवर्ग भगवती लक्ष्मी के कहे गये हैं। इनके नाम के आदि में और अन्त में `नम:´ लगाकर जप करने से अभीष्ट धन की प्राप्ति होती है। यथा - ॐ देवसखाय नम:, चिक्लीताय, आनन्दाय, कर्दमाय, श्रीप्रदाय, जातवेदाय, अनुरागाय, सम्वादाय, विजयाय, वल्लभाय, मदाय, हर्षाय, बलाय, तेजसे, दमकाय, सलिलाय, गुग्गुलाय, ॐ कुरूण्टकाय नम:।

22॰ किसी कार्य की सिद्धि के लिए जाते समय घर से निकलने से पूर्व ही अपने हाथ में रोटी ले लें। मार्ग में जहां भी कौए दिखलाई दें, वहां उस रोटी के टुकड़े कर के डाल दें और आगे बढ़ जाएं। इससे सफलता प्राप्त होती है।
23॰ किसी भी आवश्यक कार्य के लिए घर से निकलते समय घर की देहली के बाहर, पूर्व दिशा की ओर, एक मुट्ठी घुघंची को रख कर अपना कार्य बोलते हुए, उस पर बलपूर्वक पैर रख कर, कार्य हेतु निकल जाएं, तो अवश्य ही कार्य में सफलता मिलती है।

24॰ अगर किसी काम से जाना हो, तो एक नींबू लें। उसपर 4 लौंग गाड़ दें तथा इस मंत्र का जाप करें : `ॐ श्री हनुमते नम:´। 21 बार जाप करने के बाद उसको साथ ले कर जाएं। काम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी।
25॰ चुटकी भर हींग अपने ऊपर से वार कर उत्तर दिशा में फेंक दें। प्रात:काल तीन हरी इलायची को दाएँ हाथ में रखकर “श्रीं श्रीं´´ बोलें, उसे खा लें, फिर बाहर जाए¡।

26॰ जिन व्यक्तियों को लाख प्रयत्न करने पर भी स्वयं का मकान न बन पा रहा हो, वे इस टोटके को अपनाएं।
प्रत्येक शुक्रवार को नियम से किसी भूखे को भोजन कराएं और रविवार के दिन गाय को गुड़ खिलाएं। ऐसा नियमित करने से अपनी अचल सम्पति बनेगी या पैतृक सम्पति प्राप्त होगी। अगर सम्भव हो तो प्रात:काल स्नान-ध्यान के पश्चात् निम्न मंत्र का जाप करें। “ॐ पद्मावती पद्म कुशी वज्रवज्रांपुशी प्रतिब भवंति भवंति।।´´
27॰ यह प्रयोग नवरात्रि के दिनों में अष्टमी तिथि को किया जाता है। इस दिन प्रात:काल उठ कर पूजा स्थल में गंगाजल, कुआं जल, बोरिंग जल में से जो उपलब्ध हो, उसके छींटे लगाएं, फिर एक पाटे के ऊपर दुर्गा जी के चित्र के सामने, पूर्व में मुंह करते हुए उस पर 5 ग्राम सिक्के रखें। साबुत सिक्कों पर रोली, लाल चन्दन एवं एक गुलाब का पुष्प चढ़ाएं। माता से प्रार्थना करें। इन सबको पोटली बांध कर अपने गल्ले, संदूक या अलमारी में रख दें। यह टोटका हर 6 माह बाद पुन: दोहराएं।
28॰ घर में समृद्धि लाने हेतु घर के उत्तरपश्चिम के कोण (वायव्य कोण) में सुन्दर से मिट्टी के बर्तन में कुछ सोने-चांदी के सिक्के, लाल कपड़े में बांध कर रखें। फिर बर्तन को गेहूं या चावल से भर दें। ऐसा करने से घर में धन का अभाव नहीं रहेगा।
29॰ व्यक्ति को ऋण मुक्त कराने में यह टोटका अवश्य सहायता करेगा : मंगलवार को शिव मन्दिर में जा कर शिवलिंग पर मसूर की दाल “ॐ ऋण मुक्तेश्वर महादेवाय नम:´´ मंत्र बोलते हुए चढ़ाएं।

30॰ जिन व्यक्तियों को निरन्तर कर्ज घेरे रहते हैं, उन्हें प्रतिदिन “ऋणमोचक मंगल स्तोत्र´´ का पाठ करना चाहिये। यह पाठ शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से शुरू करना चाहिये। यदि प्रतिदिन किसी कारण न कर सकें, तो प्रत्येक मंगलवार को अवश्य करना चाहिये।
31॰ सोमवार के दिन एक रूमाल, 5 गुलाब के फूल, 1 चांदी का पत्ता, थोड़े से चावल तथा थोड़ा सा गुड़ लें। फिर किसी विष्णुण्लक्ष्मी जी के मिन्दर में जा कर मूर्त्ति के सामने रूमाल रख कर शेष वस्तुओं को हाथ में लेकर 21 बार गायत्री मंत्र का पाठ करते हुए बारी-बारी इन वस्तुओं को उसमें डालते रहें। फिर इनको इकट्ठा कर के कहें की `मेरी परेशानियां दूर हो जाएं तथा मेरा कर्जा उतर जाए´। यह क्रिया आगामी 7 सोमवार और करें। कर्जा जल्दी उतर जाएगा तथा परेशानियां भी दूर हो जाएंगी।
32॰ सर्वप्रथम 5 लाल गुलाब के पूर्ण खिले हुए फूल लें। इसके पश्चात् डेढ़ मीटर सफेद कपड़ा ले कर अपने सामने बिछा लें। इन पांचों गुलाब के फुलों को उसमें, गायत्री मंत्र 21 बार पढ़ते हुए बांध दें। अब स्वयं जा कर इन्हें जल में प्रवाहित कर दें। भगवान ने चाहा तो जल्दी ही कर्ज से मुक्ति प्राप्त होगी।
34॰ कर्ज-मुक्ति के लिये “गजेन्द्र-मोक्ष´´ स्तोत्र का प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व पाठ अमोघ उपाय है।

35॰ घर में स्थायी सुख-समृद्धि हेतु पीपल के वृक्ष की छाया में खड़े रह कर लोहे के बर्तन में जल, चीनी, घी तथा दूध मिला कर पीपल के वृक्ष की जड़ में डालने से घर में लम्बे समय तक सुख-समृद्धि रहती है और लक्ष्मी का वास होता है।
33॰ अगर निरन्तर कर्ज में फँसते जा रहे हों, तो श्मशान के कुएं का जल लाकर किसी पीपल के वृक्ष पर चढ़ाना चाहिए। यह 6 शनिवार किया जाए, तो आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त होते हैं।

36॰ घर में बार-बार धन हानि हो रही हो तों वीरवार को घर के मुख्य द्वार पर गुलाल छिड़क कर गुलाल पर शुद्ध घी का दोमुखी (दो मुख वाला) दीपक जलाना चाहिए। दीपक जलाते समय मन ही मन यह कामना करनी चाहिए की `भविष्य में घर में धन हानि का सामना न करना पड़े´। जब दीपक शांत हो जाए तो उसे बहते हुए पानी में बहा देना चाहिए।

37॰ काले तिल परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर सात बार उसार कर घर के उत्तर दिशा में फेंक दें, धनहानि बंद होगी।

38॰ घर की आर्थिक स्थिति ठीक करने के लिए घर में सोने का चौरस सिक्का रखें। कुत्ते को दूध दें। अपने कमरे में मोर का पंख रखें।
39॰ अगर आप सुख-समृद्धि चाहते हैं, तो आपको पके हुए मिट्टी के घड़े को लाल रंग से रंगकर, उसके मुख पर मोली बांधकर तथा उसमें जटायुक्त नारियल रखकर बहते हुए जल में प्रवाहित कर देना चाहिए।

40॰ अखंडित भोज पत्र पर 15 का यंत्र लाल चन्दन की स्याही से मोर के पंख की कलम से बनाएं और उसे सदा अपने पास रखें।
41॰ व्यक्ति जब उन्नति की ओर अग्रसर होता है, तो उसकी उन्नति से ईर्ष्याग्रस्त होकर कुछ उसके अपने ही उसके शत्रु बन जाते हैं और उसे सहयोग देने के स्थान पर वे ही उसकी उन्नति के मार्ग को अवरूद्ध करने लग जाते हैं, ऐसे शत्रुओं से निपटना अत्यधिक कठिन होता है। ऐसी ही परिस्थितियों से निपटने के लिए प्रात:काल सात बार हनुमान बाण का पाठ करें तथा हनुमान जी को लड्डू का भोग लगाए¡ और पाँच लौंग पूजा स्थान में देशी कर्पूर के साथ जलाएँ। फिर भस्म से तिलक करके बाहर जाए¡। यह प्रयोग आपके जीवन में समस्त शत्रुओं को परास्त करने में सक्षम होगा, वहीं इस यंत्र के माध्यम से आप अपनी मनोकामनाओं की भी पूर्ति करने में सक्षम होंगे।
42॰ कच्ची धानी के तेल के दीपक में लौंग डालकर हनुमान जी की आरती करें। अनिष्ट दूर होगा और धन भी प्राप्त होगा।

43॰ अगर अचानक धन लाभ की स्थितियाँ बन रही हो, किन्तु लाभ नहीं मिल रहा हो, तो गोपी चन्दन की नौ डलियाँ लेकर केले के वृक्ष पर टाँग देनी चाहिए। स्मरण रहे यह चन्दन पीले धागे से ही बाँधना है।
44॰ अकस्मात् धन लाभ के लिये शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार को सफेद कपड़े के झंडे को पीपल के वृक्ष पर लगाना चाहिए। यदि व्यवसाय में आकिस्मक व्यवधान एवं पतन की सम्भावना प्रबल हो रही हो, तो यह प्रयोग बहुत लाभदायक है।

45॰ अगर आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे हों, तो मन्दिर में केले के दो पौधे (नर-मादा) लगा दें।

46॰ अगर आप अमावस्या के दिन पीला त्रिकोण आकृति की पताका विष्णु मन्दिर में ऊँचाई वाले स्थान पर इस प्रकार लगाएँ कि वह लहराता हुआ रहे, तो आपका भाग्य शीघ्र ही चमक उठेगा। झंडा लगातार वहाँ लगा रहना चाहिए। यह अनिवार्य शर्त है।

47॰ देवी लक्ष्मी के चित्र के समक्ष नौ बत्तियों का घी का दीपक जलाए¡। उसी दिन धन लाभ होगा।

48॰ एक नारियल पर कामिया सिन्दूर, मोली, अक्षत अर्पित कर पूजन करें। फिर हनुमान जी के मन्दिर में चढ़ा आएँ। धन लाभ होगा।

49॰ पीपल के वृक्ष की जड़ में तेल का दीपक जला दें। फिर वापस घर आ जाएँ एवं पीछे मुड़कर न देखें। धन लाभ होगा।

50॰ प्रात:काल पीपल के वृक्ष में जल चढ़ाएँ तथा अपनी सफलता की मनोकामना करें और घर से बाहर शुद्ध केसर से स्वस्तिक बनाकर उस पर पीले पुष्प और अक्षत चढ़ाए¡। घर से बाहर निकलते समय दाहिना पाँव पहले बाहर निकालें।

51॰ एक हंडिया में सवा किलो हरी साबुत मूंग की दाल, दूसरी में सवा किलो डलिया वाला नमक भर दें। यह दोनों हंडिया घर में कहीं रख दें। यह क्रिया बुधवार को करें। घर में धन आना शुरू हो जाएगा।
52॰ प्रत्येक मंगलवार को 11 पीपल के पत्ते लें। उनको गंगाजल से अच्छी तरह धोकर लाल चन्दन से हर पत्ते पर 7 बार राम लिखें। इसके बाद हनुमान जी के मन्दिर में चढ़ा आएं तथा वहां प्रसाद बाटें और इस मंत्र का जाप जितना कर सकते हो करें। `जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करो गुरू देव की नांई´ 7 मंगलवार लगातार जप करें। प्रयोग गोपनीय रखें। अवश्य लाभ होगा।

53॰ अगर नौकरी में तरक्की चाहते हैं, तो 7 तरह का अनाज चिड़ियों को डालें।
54॰ ऋग्वेद (4/32/20-21) का प्रसिद्ध मन्त्र इस प्रकार है -
`ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।।´
(हे लक्ष्मीपते ! आप दानी हैं, साधारण दानदाता ही नहीं बहुत बड़े दानी हैं। आप्तजनों से सुना है कि संसारभर से निराश होकर जो याचक आपसे प्रार्थना करता है उसकी पुकार सुनकर उसे आप आर्थिक कष्टों से मुक्त कर देते हैं - उसकी झोली भर देते हैं। हे भगवान मुझे इस अर्थ संकट से मुक्त कर दो।)
51॰ निम्न मन्त्र को शुभमुहूर्त्त में प्रारम्भ करें। प्रतिदिन नियमपूर्वक 5 माला श्रद्धा से भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके, जप करता रहे -
“ॐ क्लीं नन्दादि गोकुलत्राता दाता दारिद्र्यभंजन।
सर्वमंगलदाता च सर्वकाम प्रदायक:। श्रीकृष्णाय नम:।।´´

52॰ भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष भरणी नक्षत्र के दिन चार घड़ों में पानी भरकर किसी एकान्त कमरे में रख दें। अगले दिन जिस घड़े का पानी कुछ कम हो उसे अन्न से भरकर प्रतिदिन विधिवत पूजन करते रहें। शेष घड़ों के पानी को घर, आँगन, खेत आदि में छिड़क दें। अन्नपूर्णा देवी सदैव प्रसन्न रहेगीं।
53॰ किसी शुभ कार्य के जाने से पहले -
रविवार को पान का पत्ता साथ रखकर जायें।
सोमवार को दर्पण में अपना चेहरा देखकर जायें।
मंगलवार को मिष्ठान खाकर जायें।
बुधवार को हरे धनिये के पत्ते खाकर जायें।
गुरूवार को सरसों के कुछ दाने मुख में डालकर जायें।
शुक्रवार को दही खाकर जायें।
शनिवार को अदरक और घी खाकर जाना चाहिये।

54॰ किसी भी शनिवार की शाम को माह की दाल के दाने लें। उसपर थोड़ी सी दही और सिन्दूर लगाकर पीपल के वृक्ष के नीचे रख दें और बिना मुड़कर देखे वापिस आ जायें। सात शनिवार लगातार करने से आर्थिक समृद्धि तथा खुशहाली बनी रहेगी।

tantra

॰ किसी के प्रत्येक शुभ कार्य में बाधा आती हो या विलम्ब होता हो तो रविवार को भैरों जी के मंदिर में सिंदूर का चोला चढ़ा कर “बटुक भैरव स्तोत्र´´ का एक पाठ कर के गौ, कौओं और काले कुत्तों को उनकी रूचि का पदार्थ खिलाना चाहिए। ऐसा वर्ष में 4-5 बार करने से कार्य बाधाएं नष्ट हो जाएंगी।
॰ यदि परिश्रम के पश्चात् भी कारोबार ठप्प हो, या धन आकर खर्च हो जाता हो तो यह टोटका काम में लें। किसी गुरू पुष्य योग और शुभ चन्द्रमा के दिन प्रात: हरे रंग के कपड़े की छोटी थैली तैयार करें। श्री गणेश के चित्र अथवा मूर्ति के आगे “संकटनाशन गणेश स्तोत्र´´ के 11 पाठ करें। तत्पश्चात् इस थैली में 7 मूंग, 10 ग्राम साबुत धनिया, एक पंचमुखी रूद्राक्ष, एक चांदी का रूपया या 2 सुपारी, 2 हल्दी की गांठ रख कर दाहिने मुख के गणेश जी को शुद्ध घी के मोदक का भोग लगाएं। फिर यह थैली तिजोरी या कैश बॉक्स में रख दें। गरीबों और ब्राह्मणों को दान करते रहे। आर्थिक स्थिति में शीघ्र सुधार आएगा। 1 साल बाद नयी थैली बना कर बदलते रहें।

लक्ष्मी को धन का प्रतीक माना गया है


लक्ष्मी को धन का प्रतीक माना गया है. दुनिया में सभी लेन-देन धन यानी मुद्रा के माध्यम से होता है. हमारी क्रय-शक्ति का आधार भी धन ही होता है. सोना-चाँदी, हीरे-मोती भी धन ही है.ं ये सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ जुटाने के माध्यम मात्र हैं. रोटी-कपड़ा-मकान की मूलभूत जरूरत से लेकर अन्तहीन चाहत भी धन यानी लक्ष्मी पर टिकी होती है. सभी प्रकार के विकास के पीछे भी धन का ही हाथ होता है. ज्ञान, चरित्र, श्रम आदि को भी धन की उपमा दी जाती है लेकिन इनका उपयोग भी धन कमाने के लिए ही किया जाता है यानी लक्ष्मी की लीला अपरम्पार है. धन बहुत बड़ी ताकत है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. इस धन को पाने के लिए आदमी क्या से क्या नहीं कर बैठता, कल्पना करना भी मुश्किल है. कोई किसी भी धंधे में हो, वह लक्ष्मी के लिए दिन-रात नाचता ही रहता है. पूरी दुनिया नाचघर बनी हुई है यानी लक्ष्मी सबको नचा रही है. वैसे घरवाली को भी लक्ष्मी ही कहा जाता है.
वैसे तो ‘संतोष’ को सबसे बड़ा धन कहा गया है लेकिन इस ‘संतोष’ का निवास मन में होता है और मन सदा असंतोषी होता है. इसे साधने वाले तो विरले ही होते हैं. धन को धिक्कारने वालों का यदि बारीकी से निरीक्षण किया जाए तो वे भी धन के पेड़ पर ही बैठे हुए मिलेंगे. अपरिग्रह जीवन का सत्य नहीं बल्कि प्रवचनों की शोभा बन गया है. जल्दी और अधिक धन की चाहना में अनैतिकता का भरपूर प्रयोग, हर किसी को लालायित करने लगा है. पहले धर्म का डर हुआ करता था लेकिन अब कानून की लचरता ने बचा हुआ डर भी भगा दिया है. प्रायः सभी गलत कामों के पीछे धन हड़पने की आकांक्षा ही काम करती है. यह दीगर बात है कि संस्कारों से भीगे लोग ऐसे धन को हजम करने की क्षमता नहीं रखते और यदि वे ऐसा करते हैं तो अपने दोगले चरित्र के कारण अनेकानेक रोगों से ग्रसित होते हुए, अपना सुख-चैन गवां बैठते हैं. जीवन के प्रायः सभी दुःखों की जड़ में धन की अल्पता या विपुलता विराजित होती है.
धन की इच्छा की सार्वभौमिकता के साथ सर्वसुख की कामना भी सार्वभौमिक है. जैसे निश्चित मात्रा में दी जाने वाली औषधि ही आरोग्य में सहायक होती है, वैसे ही धन की उचित आपूर्ति सुख-सम्पन्नता को बढ़ावा देती है. धन, हमारी ऊर्जा को जगाने और उसे बनाए रखने के लिए अत्यन्त जरूरी है. छोटी से लेकर बड़ी बीमारी तक से निजात दिलाने में धन सहयोगी होता है. जीवन के सभी कामों में पग-पग पर धन की जरूरत पड़ती है. धन का आवागमन स्वास्थ्यवर्धक है परन्तु उसका अनुपयोगी संचय दुखदायी होता है, जैसे पेट में ही पड़ा हुआ अन्न कब्ज के साथ कई बीमारियाँ पैदा कर देता है. धन जब इतराने लगता है तो अहंकार को उछाल मिलती है. धन के कुओं के पनघट पर रिश्ते-नातों का जमघट लगने लगता है. धन की सड़क पर गड्डों की भरमार होती है, जिसमें धन के पीछे अन्धे हुए लोग गिरते रहते हैं. धन की चाहना, आदमी को मंदिर-मस्जिद, ज्योतिष, वास्तु, तंत्र-मंत्र-यंत्र, गुरू आदि के आंगन में नचाती रहती है. वस्तुतः मर्यादित धन ऊर्जा देता है तो उसका बेतरतीब बहाव आत्मविश्वास छीनते हुए, परावलम्बी यानी याचक बना देता है.
श्रम तो सभी करते हैं लेकिन लक्ष्मी की कृपा सब पर नहीं होती. जो लक्ष्मी को नियोजित करते हुए उसे आदर-सम्मान देते हैं, वह उसीकी होती है. अच्छा खान-पान, रहन-सहन, मान-सम्मान और शोभित जीवनशैली आदि भी धन की संतुलित उपलब्धता पर ही निर्भर करती है. उचित ढंग से अर्जित मर्यादित लक्ष्मी का आलिंगन जीवन को आनन्दित बनाए रखता है.
जो लोग लोभ, स्वार्थ, जोड़-तोड़, छीना-झपटी, घूसखोरी, मिलावट, नशा-पत्ता, जुआ, धोखा-धड़ी, चोरी-चपाटी आदि के सहारे लक्ष्मी को पाने की लालसा रखते हैं, उनको- पग-पग नचावत लिछमी.
                             


बुद्धि और ज्ञान

बुद्धि और ज्ञान
1॰ माघ मास की कृष्णपक्ष अष्टमी के दिन को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में अर्द्धरात्रि के समय रक्त चन्दन से अनार की कलम से “ॐ ह्वीं´´ को भोजपत्र पर लिख कर नित्य पूजा करने से अपार विद्या, बुद्धि की प्राप्ति होती है।